सूचना एवं प्रसारण
मंत्री वेंकैया नायडू ने सही फरमाया है कि लोकतंत्र में, एक मुक्त समाज में अभिव्यक्ति की गारंटी संविधान से मिली
होती है। लोकतंत्र में मीडिया का नियमन नहीं कर सकते; स्व-नियमन ही अच्छा होता है ।
सूचना एवं प्रसारण
मंत्री वेंकैया नायडू ने सही फरमाया है कि लोकतंत्र में, एक मुक्त समाज में अभिव्यक्ति की गारंटी संविधान से मिली
होती है। लोकतंत्र में मीडिया का नियमन नहीं कर सकते; स्व-नियमन ही अच्छा होता है। इसलिए नए विधेयक की नहीं,
बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति व प्रशासनिक दक्षता
की आवश्यकता है। साथ में नायडू ने यह भी कहा कि यह भावना बढ़ रही है कि सोशल मीडिया
बेलगाम होता जा रहा है। पर अगर आप मीडिया को नियंत्रित करना शुरू कर देंगे,
तो इसका सकारात्मक असर नहीं होगा। नायडू के इस
बयान की अहमियत खासकर दो वजहों से है। एक तो यह कि वे सूचना व प्रसारण मंत्री हैं।
दूसरे, कुछ समय से मीडिया
के लिए मर्यादाएं तय करने के संदर्भ में यह बहस चलती रही है कि इसका स्वरूप क्या
हो; क्या यह कानून के जरिए हो
और किसी सरकारी महकमे या किसी समिति या आयोग को यह जिम्मा सौंपा जाना चाहिए,
या खुद मीडिया पर यह छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह
अपनी लक्ष्मण रेखा आप तय करे। उचित ही, अधिकांश मत यही रहा है कि स्व-नियमन सर्वोत्तम विकल्प है। दुनिया भर में बाहर
से नियमन में दिलचस्पी सत्तापक्ष और अन्य ताकतवर तबकों की होती है। पर इसके दो
खतरे होते हैं। एक तो यह कि सत्तापक्ष और निरंकुश होता जाता है। दूसरे, लोकतंत्र का क्षय होता है। आश्चर्य नहीं कि
तानाशाही आती है, तो सबसे पहले मीडिया
को नियंत्रित करती है। कुछ लोग यह डर दिखाते हैं कि अगर मीडिया के औपचारिक नियमन
की कोई व्यवस्था नहीं होगी, तो मीडिया स्वच्छंद और स्वेच्छाचारी हो जाएगा। मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि भले
सीधे मीडिया की बांह पकड़ने वाला कानून न हो, पर ऐसे कई कानून हैं जो उसे बेलगाम होने से रोकते हैं। मसलन
अश्लीलता परोसने, हिंसा भड़काने तथा
मान हानि से संबंधित कानून। फिर, कारोबार संबंधी कानून अलग से हैं। इसके अलावा, रिपोर्टिंग से संबंधित कुछ आचार संहिता भी प्रेस परिषद ने
तय कर रखी है। मसलन, सांप्रदायिक दंगों
की खबरें देते समय किन बातों का खास ध्यान रखा जाए और किसी पर आरोप के मामले में
उसके प्रतिवाद या स्पष्टीकरण को भी जगह दी जाए।
यह सब होते हुए भी
मीडिया के एक हिस्से में खबरों को अनावश्यक रूप से सनसनीखेज बनाने का रुझान दिखाई
देता है और इसके लिए तथ्यों से खिलवाड़ भी होता रहता है। लोकप्रिय सितारों और
जानी-मानी शख्सियतों की निजता में ताक-झांक की कमजोरी भी कई बार मीडिया में दिखती
है। आरोपित व्यक्तियों के बारे में कई बार ऐसे खबरें दी जाती हैं मानो वे दोषी
ठहराए जा चुके हों। यह पत्रकारिता के मूल्यों के विपरीत तो है ही, न्यायिक प्रक्रिया को बेजा प्रभावित करने की
कोशिश भी है। इसलिए कई बार सर्वोच्च न्यायालय भी पत्रकारों को ‘मीडिया ट्रायल’ से बचने की हिदायत दे चुका है। प्रिंट मीडिया के मद्देनजर
शिकायतें सुनने के लिए भारतीय प्रेस परिषद के रूप में एक व्यवस्था अरसे से चली आ
रही है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संदर्भ में इसका अभाव था, जिसे न्यूज ब्राडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी के गठन के साथ
दूर करने की कोशिश की गई। पर स्व-नियमन का यह उपाय अभी तक पर्याप्त प्रभावी साबित
नहीं हो पाया है। फिर, सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति के अनंत अवसरों के साथ ही नई चुनौतियां भी पेश की
हैं। इन चुनौतियों से पार पाने के तरीके क्या हों, यह विचारणीय है। पर यह अच्छी बात है कि सरकार अपनी तरफ से
कोई नियमन थोपने का इरादा नहीं रखती।
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