
वर्ष 2004 में कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा बनाए गए कानून को सर्वोच्च अदालत ने
असंवैधानिक ठहरा दिया है। इस कानून के जरिए पंजाब की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 1981 के जल बंटवारा समझौते को रद्द करने की कोशिश की थी। सर्वोच्च अदालत ने कहा
है कि समझौते को एकपक्षीय तरीके से समाप्त नहीं किया जा सकता। इस तरह अदालत ने
अपने पिछले फैसलों को ही दोहराया है। जनवरी 2002
में
अदालत ने पंजाब को एसवाइएल का निर्माण पूरा करने का निर्देश दिया था। इसके खिलाफ
पंजाब की अपील भी अदालत ने खारिज कर दी थी। 2004
में
पंजाब ने समझौता निरस्तीकरण अधिनियम बना कर तमाम जल समझौते रद्द करने की घोषणा की।
मामला राष्ट्रपति के पास गया। राष्ट्रपति ने इस पर सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी थी।
इसी प्रक्रिया के तहत सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने ताजा फैसला सुनाया है, राय मांगे जाने के बारह साल बाद। इसके सिवा सर्वोच्च अदालत का कोई दूसरा
फैसला नहीं हो सकता था, क्योंकि वैसी सूरत में फैसला जल समझौते
के खिलाफ तो होता ही, खुद अदालत के अपने पूर्व के आदेशों से
उलट होता। बहरहाल, अदालत का ताजा निर्णय आते ही एक बार
फिर पंजाब की राजनीति गरमा गई है। फिर,
इस बार
तो विधानसभा चुनाव भी नजदीक हैं।
फैसले
से नाराज कैप्टन अमरिंदर सिंह ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने का एलान कर
दिया। फिर उन्हीं की तर्ज पर राज्य के कांग्रेसी विधायकों ने अपनी विधायकी छोड़ने
की घोषणा कर दी। जाहिर है, यह ‘त्याग’ खासकर विधानसभा चुनाव के
मद्देनजर बढ़त लेने की कोशिश की है। इस होड़ में पीछे न रहने की मंशा जताते हुए
अकाली नेताओं ने कहा है कि वे पंजाब से एक बूंद पानी नहीं ले जाने देंगे। जब
अमरिंदर सरकार ने जल समझौता रद्द करने का इकतरफा कानून बनाया था, तब पंजाब के साथ ही हरियाणा में भी कांग्रेस की सरकार थी, और केंद्र में भी। फिर भी, दोनों राज्य आमने-सामने हो गए थे, और केंद्र मूकदर्शक रहा था। इस बार फिर वैसी ही हालत है, जब पंजाब की सरकार में भाजपा साझेदार है और हरियाणा तथा केंद्र में भी उसी
की सरकार है। पंजाब के तमाम राजनीतिक इस बात का रोना रोते हैं कि उनका राज्य खुद
पानी की कमी से जूझ रहा है। लेकिन अच्छा होगा कि वे हायतौबा मचाने के बदले जल
प्रदूषण रोकने तथा भूजल को बचाने पर जोर दें। इससे पंजाब का कहीं ज्यादा भला होगा।
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