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जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबे और भारतीय प्रधानमंत्री
मोदी। |
यों तो जापान के साथ भारत के रिश्ते
हमेशा सौहार्दपूर्ण ही रहे हैं, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जापान यात्रा से दोनों
देशों के बीच साझेदारी का नया दरवाजा खुला है। हालांकि जापान के प्रधानमंत्री
शिंजो आबे के साथ मोदी की बातचीत में व्यापार व निवेश, सुरक्षा, आतंकवाद, कौशल विकास में सहयोग, अंतरिक्ष और नागरिकों के
स्तर पर संपर्क जैसे विषय भी शामिल रहे, पर जापान और भारत के बीच हुआ असैन्य
परमाणु करार ही मोदी की इस यात्रा की सबसे खास उपलब्धि है। हालांकि भारत ने और कई
देशों के साथ पहले से एटमी ऊर्जा करार कर रखे हैं, पर जापान के साथ इस तरह का समझौता
कहीं ज्यादा मायने रखता है। एक तरह से जापान ने भारत के साथ वैसी दरियादिली दिखाई
है जिसे अपवाद ही कहा जाएगा।
जापान की परंपरागत नीति
यह रही है कि वह किसी ऐसे देश के साथ परमाणु करार नहीं कर सकता, जिसने एनपीटी यानी परमाणु
अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न किए हों। जाहिर है, दूसरे देशों के साथ हुए एटमी ऊर्जा
करारों के मुकाबले जापान के साथ भारत का ऐसा करार हो पाना काफी मुश्किल था। और यह
एक प्रमुख कारण है कि इसमें काफी वक्त लगा। इस सिलसिले में जून 2010 में बातचीत शुरू हुई थी।
इसे अंजाम तक पहुंचाने में छह साल से ज्यादा वक्त लगा तो एनपीटी और अन्य
पेचीदगियों के अलावा एक कारण फुकुशिमा हादसा भी था।
यों अमेरिका के साथ हुए
भारत के एटमी करार को अंतिम रूप देने में भी कई बरस लगे थे। वर्ष 2007 में 1-2-3 समझौते पर हस्ताक्षर किए
गए। वर्ष 2008 में एनएसजी यानी परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की मंजूरी मिली। वर्ष 2010 में पुन: संवर्धन समझौते को
अंतिम रूप दिया गया। आखिरकार 2015 में इस करार पर हस्ताक्षर हुए। जापान के साथ कई साल वार्ता
जरूर चली, पर
एक ही चरण में करार हो गया। दरअसल, एनएसजी की मंजूरी और आइएइए यानी
अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की हरी झंडी मिलने जैसी शर्तें व औपचारिकताएं
भारत को अमेरिका से करार की प्रक्रिया के दौर में पूरी करनी पड़ी थीं। जापान सरकार
ने एटमी मामले में अपने देश की संवेदनशीलता को हुए सुरक्षा संबंधी कुछ विशेष
प्रावधान रखने पर जोर दिया और उसे भारत ने स्वीकार कर लिया। जापान से एटमी समझौते
की अहमियत जाहिर है।
जापान की गिनती उन देशों
में होती है जो परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी हैं। समझौते के फलस्वरूप जापान
परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत को र्इंधन, तकनीक और प्रबंधकीय सहयोग दे सकेगा।
यही नहीं, यह
समझौता अमेरिकी और फ्रेंच कंपनियों के लिए भी भारत के साथ परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र
में व्यापार की राह प्रशस्त करेगा, जिनके साथ जापानी कंपनियों ने
व्यापारिक करार कर रखे हैं। अलबत्ता भारत और जापान के बीच हुए एटमी समझौते
को अभी जापान में एक आंतरिक बाधा पार करनी है, उसे संसद की मंजूरी मिलना बाकी है।
पर शिंजो आबे ने परंपरागत रुख से अलग हट कर इतना बड़ा कदम उठाया है तो जाहिर है कि
उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाई है और उम्मीद की जानी चाहिए कि करार को
जापानी संसद की मंजूरी दिलाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। जापान के साथ हुए एटमी
ऊर्जा करार से एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी को बल मिला है। पर चीन
का अड़ंगा क्या वैसा होने देगा, जबकि दक्षिण चीन सागर के मसले पर शिंजो आबे और मोदी की
बातचीत और समुद्र से संबंधित अंतरराष्ट्रीय कानून को लेकर दोनों नेताओं का समान
नजरिए का इजहार उसे नागवार ही गुजरा होगा?
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