सहकारी पर संकट

खेत में किसान
हजार और पांच सौ के नोटों के विमुद्रीकरण के क्या-क्या असर होंगे, इसका पूरा अनुमान फिलहाल लगा पाना मुश्किल है। पर यह साफ है कि सहकारी बैंक संकट में आ गए हैं। केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार ने नोटबंदी की प्रक्रिया की आड़ में सहकारी बैंकों को तबाह कर दिया। साथ ही विजयन ने बीते शुक्रवार को अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के साथ तिरुवनंतपुरम में रिजर्व बैंक के क्षेत्रीय कार्यालय के सामने धरना भी दिया। कई और राज्यों से भी सहकारी बैंकों के भविष्य को लेकर आशंका के स्वर उठे हैं। आखिर इस नाराजगी और अंदेशे की वजह क्या है। दरअसल, सहकारी बैंकों को हजार और पांच सौ के पुराने नोट बदलने की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया। इससे सहकारी बैंकों की हालत बड़ी खस्ता हो गई है। जिन लोगों के इन बैंकों में खाते थे वे पुराने नोट बदलने चाहते थे, पर वे इन बैंकों में नहीं कर सकते थे। इन नोटों को वहां जमा भी नहीं करा सकते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि बहुत सारे सहकारी बैंकों की जमा पूंजी घट गई है, कुछ की तो शायद कुछेक हजार तक रह गई है। इससे इन बैंकों के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है।
केंद्र सरकार ने शायद इसलिए सहकारी बैंकों को विमुद्रीकरण की प्रक्रिया से बाहर रखा कि ज्यादातर सहकारी बैंकों पर स्थानीय राजनीतिकों और व्यवसायियों का नियंत्रण है और इनमें से कई में अनियमितताएं हो चुकी हैं। इस लिहाज से सरकार का अंदेशा गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन किसानों को बैंकिंग सुविधा से जोड़ने के मकसद से शुरू किए गए इन बैंकों की देश के ग्रामीण इलाकों में दूर-दूर तक पहुंच है। किसानों के पचास फीसद से ज्यादा खाते इन्हीं बैंकों में हैं, जहां वे अपनी बचत भी जमा करते हैं और कृषि-कार्य के लिए कर्ज भी लेते हैं। दूरदराज तक जहां सरकारी और व्यावसायिक बैंकों की मौजूदगी नहीं है, सहकारी बैंकों ने लोगों को वित्तीय सहारा देने में अहम भूमिका निभाई है। केरल जैसे राज्य में तो सहकारी बैंकों का कारोबार भी बड़ा है और शानदार रिकार्ड भी रहा है। लेकिन अनियमितता के कुछ वाकयों की कीमत सारे सहकारी बैंकों को चुकानी पड़ी है। संकट में काम न आने पर अब क्या ये बैंक अपने ग्राहकों का भरोसा कायम रख पाएंगे?

सरकार ने सहकारी बैंकों को नोटों की अदलाबदली से अलग रखा तो कोई हर्ज नहीं, पर किसानों को संकट से बचाने की उसके पास क्या योजना थी? विमुद्रीकरण के फैसले के बाद ग्रामीण इलाकों में शहरों से ज्यादा बुरा हाल दिखा, जहां कई किलोमीटर जाने पर किसी बैंक शाखा या एटीएम के दर्शन होते हैं, पर वहां नगदी के दर्शन नहीं हो रहे थे। रबी की बुआई के समय जिन किसानों ने पुराने नोट बदल देने की गुहार इन बैंकों से लगाई होगी, उन्होंने पाया कि जिनसे वे फरियाद कर रहे हैं उन्हें फरियाद सुनने का हक ही नहीं है। निराश होने पर उन किसानों पर क्या बीती होगी? क्या अब वे अपना खाता वहां रखना चाहेंगे? क्या दूसरे लोग वहां खाता खोलना चाहेंगे? क्या सरकार ने सहकारी बैंकों को अनुपयोगी मान कर उनकी विदाई का फैसला कर लिया है? पर उसके पास दूरदराज के इलाकों में वैकल्पिक व्यवस्था क्या है?

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