नोटबंदी ने केंद्र सरकार और विपक्ष के बीच जैसी तकरार पैदा कर दी है, वैसा पिछले ढाई साल में शायद ही पहले हुआ हो। मोदी सरकार को पहली बार व्यापक विरोध का सामना भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर करना पड़ा था। पर इस बार की मोर्चाबंदी और भी जोरदार है। इसके दो खास कारण हैं। नोटबंदी का प्रभाव किसी एक तबके और इलाके तक सीमित नहीं है। यह एक ऐसा मसला है जो देश के हर परिवार और हर व्यक्ति से, साथ ही समूची अर्थव्यवस्था और अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र से ताल्लुक रखता है। ऐसे में विपक्ष स्वाभाविक ही सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं रखना चाहता। विपक्ष के हमलावर रुख का दूसरा बड़ा कारण शायद पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं। विपक्ष का खयाल है कि जिस तरह हर कोई नगदी की किल्लत की मार झेल रहा है, उसका खमियाजा सरकार को और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को भुगतना पड़ेगा। इसीलिए विपक्ष के तेवर और तीखे होते जा रहे हैं। बुधवार को तेरह विरोधी दलों के दो सौ सांसदों ने संसद भवन परिसर में धरना दिया।
विपक्ष ने अपने विरोध-अभियान को आगे बढ़ाते हुए अट्ठाईस नवंबर को जन आक्रोश दिवस मनाने और देश भर में विरोध-प्रदर्शन आयोजित करने की घोषणा की है। मगर सत्तापक्ष इससे ज्यादा चिंतित नजर नहीं आता। यह कोई हैरानी की बात नहीं है। दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी को लगता है कि नोटबंदी को लेकर विपक्ष जितनी हाय-तौबा मचाएगा, उससे उसे नुकसान ही होगा। मोदी की रणनीति यह मालूम पड़ती है कि जो भी नोटबंदी पर सवाल उठाए उसे या तो काले धन के पाले में या काले धन की समस्या को हल्के में लेने वाला करार दिया जाए। इसके अलावा, उनकी रणनीति यह भी दिख रही है कि नोटबंदी को अमीर बनाम गरीब का रंग देकर वे अपना जनाधार बढ़ा सकते हैं, जैसे कि इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स खत्म करके और बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके किया था। यही वजह होगी कि मोदी को विपक्ष के हो-हल्ले और एकजुट होने की तनिक परवाह नहीं है, जैसा कि दो रोज पहले भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में उन्होंने कहा भी। वे यह भी जानते हैं कि यह एकजुटता चुनाव के मैदान में नहीं होगी। लेकिन मोदी और भाजपा यह भूल रहे हैं कि प्रिवी पर्स के खात्मे और बैंकों के राष्ट्रीयकरण से चंद निहित स्वार्थों को ही चोट पहुंची थी, आम लोगों को कोई परेशानी नहीं हुई थी। जबकि नोटबंदी ने लोगों को जीना दूभर कर दिया है।
करीब सत्तर लोगों की जिंदगी नोटबंदी की भेंट चढ़ चुकी है। एक पखवाड़ा बीतने के बाद भी नब्बे फीसद एटीएम सूखे हैं। सौ जगह खाक छानने के बाद कहीं हाथ लगता भी है तो बस दो हजार का एक नोट, जिसे दुकानदार लेना नहीं चाहते, क्योंकि उनके पास वापस करने को खुले पैसे नहीं होते। गल्ला मंडी के व्यापारी से लेकर किसान और दिहाड़ी मजदूर तक, सब बुरी तरह परेशान हैं। प्रधानमंत्री भले चमकते भारत का सपना दिखाएं, अभी तो अर्थव्यवस्था के लड़खड़ाने के ही लक्षण दिख रहे हैं। नोटबंदी से भाजपा को क्या राजनीतिक लाभ होगा, इसका पता तो बाद में चलेगा, पर संसद से प्रधानमंत्री का किनारा करना निश्चय ही एतराज का विषय है। लोग यह मान कर चल रहे थे कि जल्दी ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा। लेकिन अंतहीन दिक्कतों का मौजूदा दौर और खिंचा, तब भी क्या लोगों की प्रतिक्रिया वैसी ही होगी जैसा कि प्रधानमंत्री और भाजपा के रणनीतिकार सोचते हैं?
विपक्ष ने अपने विरोध-अभियान को आगे बढ़ाते हुए अट्ठाईस नवंबर को जन आक्रोश दिवस मनाने और देश भर में विरोध-प्रदर्शन आयोजित करने की घोषणा की है। मगर सत्तापक्ष इससे ज्यादा चिंतित नजर नहीं आता। यह कोई हैरानी की बात नहीं है। दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी को लगता है कि नोटबंदी को लेकर विपक्ष जितनी हाय-तौबा मचाएगा, उससे उसे नुकसान ही होगा। मोदी की रणनीति यह मालूम पड़ती है कि जो भी नोटबंदी पर सवाल उठाए उसे या तो काले धन के पाले में या काले धन की समस्या को हल्के में लेने वाला करार दिया जाए। इसके अलावा, उनकी रणनीति यह भी दिख रही है कि नोटबंदी को अमीर बनाम गरीब का रंग देकर वे अपना जनाधार बढ़ा सकते हैं, जैसे कि इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स खत्म करके और बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके किया था। यही वजह होगी कि मोदी को विपक्ष के हो-हल्ले और एकजुट होने की तनिक परवाह नहीं है, जैसा कि दो रोज पहले भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में उन्होंने कहा भी। वे यह भी जानते हैं कि यह एकजुटता चुनाव के मैदान में नहीं होगी। लेकिन मोदी और भाजपा यह भूल रहे हैं कि प्रिवी पर्स के खात्मे और बैंकों के राष्ट्रीयकरण से चंद निहित स्वार्थों को ही चोट पहुंची थी, आम लोगों को कोई परेशानी नहीं हुई थी। जबकि नोटबंदी ने लोगों को जीना दूभर कर दिया है।
करीब सत्तर लोगों की जिंदगी नोटबंदी की भेंट चढ़ चुकी है। एक पखवाड़ा बीतने के बाद भी नब्बे फीसद एटीएम सूखे हैं। सौ जगह खाक छानने के बाद कहीं हाथ लगता भी है तो बस दो हजार का एक नोट, जिसे दुकानदार लेना नहीं चाहते, क्योंकि उनके पास वापस करने को खुले पैसे नहीं होते। गल्ला मंडी के व्यापारी से लेकर किसान और दिहाड़ी मजदूर तक, सब बुरी तरह परेशान हैं। प्रधानमंत्री भले चमकते भारत का सपना दिखाएं, अभी तो अर्थव्यवस्था के लड़खड़ाने के ही लक्षण दिख रहे हैं। नोटबंदी से भाजपा को क्या राजनीतिक लाभ होगा, इसका पता तो बाद में चलेगा, पर संसद से प्रधानमंत्री का किनारा करना निश्चय ही एतराज का विषय है। लोग यह मान कर चल रहे थे कि जल्दी ही सब कुछ सामान्य हो जाएगा। लेकिन अंतहीन दिक्कतों का मौजूदा दौर और खिंचा, तब भी क्या लोगों की प्रतिक्रिया वैसी ही होगी जैसा कि प्रधानमंत्री और भाजपा के रणनीतिकार सोचते हैं?
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