रुपए की कीमत को पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने एक खास मुद््दा बनाया था। यूपीए सरकार के आखिरी दौर में, रुपए का अवमूल्यन होते-होते वह अगस्त 2013 में एक डॉलर के मुकाबले 68.85 के स्तर पर पहुंच गया था। तब मोदी इसे तत्कालीन सरकार के कामकाज की कमजोरी का एक प्रतीक साबित करने की कोशिश कर रहे थे। साथ ही रुपए की मजबूती को उन्होंने एक प्रकार से देश के गौरव से जोड़ दिया था। पर आज रुपए की कीमत उस समय से भी ज्यादा गिर कर चुकी है और एक डॉलर करीब उनहत्तर रुपए के बराबर पहुंच गया है। यह रुपए का अब तक का सबसे निचला स्तर है। विचित्र है कि अब रुपए की गिरावट को लेकर न मोदी ज्यादा चिंतित दिखते हैं न भाजपा! इस बाबत भारतीय रिजर्व बैंक ने भी फिलहाल अपनी रणनीति का इजहार नहीं किया है। अगर रुपए का अवमूल्यन यूपीए सरकार की कार्यप्रणाली की खामी और उस समय अर्थव्यवस्था की कमजोरी का संकेतक था, तो अब क्यों नहीं है? रुपए का अवमूल्यन यहीं थम जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता। वैश्विक वित्तीय स्थिति पर नजर रखने वाली कई एजेंसियों का अनुमान है कि रुपए के अवमूल्यन में गिरावट का सिलसिला अभी जारी रह सकता है और दिसंबर के आखीर तक एक डॉलर की कीमत सत्तर रुपए तक जा सकती है।
आखिर रुपए के लुढ़कने की वजह क्या है? इसके पीछे दोनों तरह के कारण हैं, घरेलू और बाहरी। नोटबंदी से पैदा हालात ने जहां आम लोगों का गुजारा मुश्किल बना दिया है, वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर निवेशकों को संशय और अनिश्चितता में डाल रखा है। तमाम आर्थिक विश्लेषकों समेत कई रेटिंग एजेंसियों का मानना है कि कम से कम दो तिमाही भारत की विकास दर में गिरावट का रुख रहेगा। लिहाजा, संस्थागत विदेशी निवेशक अपना पैसा निकालने में लगे हैं और शेयर बाजार में गिरावट का रुख जारी है। विदेशी निवेशकों के हाथ खींचने के पीछे एक और अहम वजह उनकी यह उम्मीद है कि अमेरिका में ब्याज दर चढ़ सकती है। बहरहाल, रुपए की कीमत में आई अपूर्व गिरावट ने आयात के मोर्चे को भारत के लिए मुश्किल बना दिया है। भारत अपनी जरूरत का करीब तीन चौथाई कच्चा तेल आयात करता है। अब उसका तेल-आयात का खर्च बढ़ जाएगा। इससे पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमतें बढेगी और ढुलाई की दरें चढ़ जाएंगी, जिसका नतीजा बहुत सारी चीजों की महंगाई के रूप में आएगा। तेल आयात का खर्च बढ़ने से वित्तीय घाटे को नियंत्रित करना भी कठिन होगा।
दूसरी तरफ, यह माना जाता है कि राष्ट्रीय मुद्रा के अवमूल्यन से और जो भी नुकसान हो, निर्यात बढ़ाने में मदद मिलती है। लेकिन भारत के निर्यात क्षेत्र की हालत पहले से खस्ता है, और नोटबंदी से पैदा अफरातफरी ने निर्यातकों को भी सांसत में डाल रखा है। कहने को कहा जा सकता है कि मुद्रा विनिमय की दरों में उतार-चढ़ाव चलता रहता है, इसलिए डॉलर के मुकाबले रुपए की मौजूदा दशा पर हायतौबा मचाने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह उस सरकार का रुख क्यों होना चाहिए, जो रुपए की मजबूती के वायदे पर आई है? फिर, यह नहीं भूलना चाहिए कि नोटबंदी ने देश की अर्थव्यवस्था को बहुत ही नाजुक हालत में पहुंचा दिया है, जहां एक तरह का झटका कई दूसरे झटकों का सबब बन सकता है।
आखिर रुपए के लुढ़कने की वजह क्या है? इसके पीछे दोनों तरह के कारण हैं, घरेलू और बाहरी। नोटबंदी से पैदा हालात ने जहां आम लोगों का गुजारा मुश्किल बना दिया है, वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर निवेशकों को संशय और अनिश्चितता में डाल रखा है। तमाम आर्थिक विश्लेषकों समेत कई रेटिंग एजेंसियों का मानना है कि कम से कम दो तिमाही भारत की विकास दर में गिरावट का रुख रहेगा। लिहाजा, संस्थागत विदेशी निवेशक अपना पैसा निकालने में लगे हैं और शेयर बाजार में गिरावट का रुख जारी है। विदेशी निवेशकों के हाथ खींचने के पीछे एक और अहम वजह उनकी यह उम्मीद है कि अमेरिका में ब्याज दर चढ़ सकती है। बहरहाल, रुपए की कीमत में आई अपूर्व गिरावट ने आयात के मोर्चे को भारत के लिए मुश्किल बना दिया है। भारत अपनी जरूरत का करीब तीन चौथाई कच्चा तेल आयात करता है। अब उसका तेल-आयात का खर्च बढ़ जाएगा। इससे पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमतें बढेगी और ढुलाई की दरें चढ़ जाएंगी, जिसका नतीजा बहुत सारी चीजों की महंगाई के रूप में आएगा। तेल आयात का खर्च बढ़ने से वित्तीय घाटे को नियंत्रित करना भी कठिन होगा।
दूसरी तरफ, यह माना जाता है कि राष्ट्रीय मुद्रा के अवमूल्यन से और जो भी नुकसान हो, निर्यात बढ़ाने में मदद मिलती है। लेकिन भारत के निर्यात क्षेत्र की हालत पहले से खस्ता है, और नोटबंदी से पैदा अफरातफरी ने निर्यातकों को भी सांसत में डाल रखा है। कहने को कहा जा सकता है कि मुद्रा विनिमय की दरों में उतार-चढ़ाव चलता रहता है, इसलिए डॉलर के मुकाबले रुपए की मौजूदा दशा पर हायतौबा मचाने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह उस सरकार का रुख क्यों होना चाहिए, जो रुपए की मजबूती के वायदे पर आई है? फिर, यह नहीं भूलना चाहिए कि नोटबंदी ने देश की अर्थव्यवस्था को बहुत ही नाजुक हालत में पहुंचा दिया है, जहां एक तरह का झटका कई दूसरे झटकों का सबब बन सकता है।
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