सराहनीय पहल

लाइफलाइन एक्सप्रेस ट्रेन
यों तो सवा सौ करोड़ आबादी वाले देश में एक रेल-चिकित्सालय चलाना ऊंट के मुंह में जीरे वाली कहावत को ही चरितार्थ करता है। लेकिन इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए। ढाई दशक पहले शुरू किए गए इस चलते-फिरते अस्पताल की क्षमता को मौजूदा केंद्र सरकार ने पांच डिब्बों से बढ़ा कर सात डिब्बों का कर दिया है। नए डिब्बों में कैंसर की जांच, इलाज और ऑपरेशन की सुविधा वाला डिब्बा भी जोड़ा गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में कैंसर के मरीजों की बढ़ती तादाद के मद्देनजर यह आवश्यक था। इस अनोखे अस्पताल की उपलब्धियों को देखते हुए भी इस तरह की परियोजनाओं को बड़े पैमाने पर लागू करने की जरूरत है। सरकारी दावे के मुताबिक ढाई दशक में इस चलंत अस्पताल ने करीब बीस लाख किलोमीटर का सफर तय किया है और दूरदराज के दस लाख निर्धन और ग्रामीण मरीजों को अपनी सेवाएं दी हैं। पहले इस टेÑन के डिब्बों में पोलियो, अंग-विकार, हृदय रोग संबंधी बीमारियों की जांच-पड़ताल करने, उनका इलाज और सिर्फ चार रोगों के आॅपरेशन करने की व्यवस्था थी। लेकिन गुरुवार से दो और डिब्बों के जुड़ने से अब यह सात डिब्बों वाला अस्पताल बन गया है। अब इसमें तीन ऑपरेशन थिएटर और सात ऑपरेशन टेबल हैं।
यह भी सराहनीय है कि इसमें गरदन की हड्डी, मुंह और स्तन कैंसर की जांच और इलाज की सुविधा भी प्रदान की गई है। रेल और स्वास्थ्य मंत्रालय के साझे प्रयासों की देन इस रेल-अस्पताल को नई साज-सज्जा के साथ रवाना किया गया है। एक अलाभकारी स्वयंसेवीसंस्था इंपैक्ट इंडिया फाउंडेशन भी इसमें मददगार है, जिसे कॉरपोरेट और निजी दानदाताओं के जरिए चलाया जाता है। इस लिहाज से इसे सार्वजनिक-निजी भागीदारी के उपक्रम के तौर पर भी देखा जा सकता है। इसकी कार्यप्रणाली कुछ इस तरह रखी गई है कि यह रेल-अस्पताल आमतौर पर किसी दूरदराज के रेलवे स्टेशन पर बीस-पच्चीस दिन के लिए रुकता है। स्थानीय प्रशासन की मदद से मरीजों का पंजीकरण किया जाता है और फिर उनकी जांच, इलाज, ऑपरेशन यानी आवश्यकतानुसार सहायता की जाती है। इसमें विशेषज्ञ चिकित्सकों, नर्सों और अर्द्धचिकित्सीय कर्मचारियों का दल साथ रहता है। फिलहाल, नए उद्घाटन के बाद इस अस्पताल को सतना के लिए रवाना किया गया है, जहां यह पंद्रह जनवरी तक रहेगा।

देश के शहरी क्षेत्र हों या ग्रामीण, कैंसर, हृदयरोग, मधुमेह आदि के रोगियों की तादाद हर साल बढ़ रही है। इसका अंदाजा दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में बढ़ती भीड़ देख कर लगाया जा सकता है, जहां चिकित्सकों को दिखाने तक में हफ्ते भर का समय लग जाता है। कई विभागों में तो ऑपरेशन वगैरह की तारीखें कई महीनों, यहां तक कि साल भर बाद तक की दी जाती हैं। जब तक ऑपरेशन की तिथि आती है, तब तक कई मरीजों की जान चली जाती है। देश में आबादी के हिसाब से जिस अनुपात में अस्पतालों की संख्या बढ़नी चाहिए, उसका दशमांश भी नहीं बढ़ा। इसके अलावा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ता निजीकरण भी गरीब और कमजोर तबके लिए इलाज को असंभव बना रहा है। आजादी के समय स्वास्थ्य और शिक्षा की जिम्मेदारी राज्य द्वारा उठाने की प्रतिज्ञा ली गई थी, लेकिन खासकर पिछले दो-ढाई दशक में उस प्रतिबद्धता से लगातार किनारा करने का सिलसिला चला है। ऐसे में इस छोटी-सी कोशिश की सराहना की जानी चाहिए।

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