अधिकारों को लेकर चल रही जंग के बीच
सर्वोच्च न्यायालय की ताजा टिप्पणी दिल्ली सरकार के लिए राहत की तरह है। अगस्त में
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में व्यवस्था दी थी कि दिल्ली में उपराज्यपाल
ही प्रशासनिक प्रमुख हैं। वे मंत्रियों के सुझाव पर काम करने को बाध्य नहीं हैं।
इस पर स्वाभाविक ही सवाल उठे थे कि फिर एक चुनी हुई सरकार के अधिकार क्या हैं? उच्च न्यायालय के फैसले को
आम आदमी पार्टी की सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। इस पर न्यायालय
ने उचित ही कहा है कि एक चुनी हुई सरकार के कुछ तो अधिकार होने चाहिए। हालांकि इस
मामले में अगली सुनवाई अठारह जनवरी को होगी, पर न्यायालय की ताजा टिप्पणी से
उम्मीद बंधी है कि वह दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर कोई व्यवस्था दे सकता है।
कानून के मुताबिक केंद्रशासित प्रदेशों में सभी प्रशासनिक अधिकार उपराज्यपाल के पास होते हैं।
कानून के मुताबिक केंद्रशासित प्रदेशों में सभी प्रशासनिक अधिकार उपराज्यपाल के पास होते हैं।
राज्यपाल केंद्रीय
गृहमंत्रालय की हिदायत के अनुसार काम करते हैं। मगर दिल्ली में विधानसभा का गठन हो
जाने के बाद यहां की व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी पहले जैसी नहीं रह गई। मगर
पिछले साल दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद उपराज्यपाल नजीब जंग और
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच अधिकारों को लेकर आए दिन तकरार शुरू हो गई।
यहां तक कि मुख्यमंत्री को अपना सचिव भी मनमाफिक नियुक्त नहीं करने दिया गया।
मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के लगभग हर फैसले पर उपराज्यपाल ने हस्तक्षेप शुरू कर
दिया। इससे पहले दिल्ली में कभी सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर ऐसी
तल्खी नहीं देखी गई। ऐसे में उच्च न्यायालय के फैसले से यह तय हो गया कि दिल्ली
सरकार को हर काम उपराज्यपाल की संस्तुति पर करना होगा, चाहे वह अधिकारियों की
नियुक्ति या तबादले का मामला हो या विधानसभा में कोई कानून पारित कराने का। जाहिर
है,
इससे
दिल्ली में केंद्र की मर्जी प्रमुख हो गई, चुनी हुई दिल्ली सरकार की नहीं।
चूंकि केंद्र और राष्ट्रीय
राजधानी क्षेत्र दिल्ली में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें हैं, इसलिए कामकाज संबंधी फैसलों
को लेकर मतभेद अधिक उभरते रहे हैं। केजरीवाल कई मौकों पर यह आरोप भी लगा चुके हैं
कि केंद्र सरकार उन्हें काम नहीं करने दे रही। इसलिए इस बात की जरूरत महसूस की
जाती रही है कि दोनों सरकारों के अधिकार स्पष्ट रूप से तय हों। यह राजनीतिक
इच्छाशक्ति का मामला भी है। इसके लिए कानून में बदलाव की जरूरत है, मगर केंद्र, दिल्ली सरकार को अधिकार देने के लिए ऐसा
करेगा, कहना
मुश्किल है। जबकि दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग भाजपा ने ही शुरू की थी और
कई चुनावों में उसने इसे मुख्य मुद््दा बनाया था। पर केंद्र में उसकी सरकार बनने
के बाद उसने इस मसले पर चुप्पी साध ली है। इसलिए भी सर्वोच्च न्यायालय की तरफ
निगाहें लगी हैं कि वह कोई व्यावहारिक व्यवस्था दे। अगर कथित पुराने नियम-कायदों
की ही लकीर पीटी जाती रहेगी, तो दिल्ली में चुनी हुई सरकार का न तो कोई अर्थ रहेगा और न
उससे जवाबदेही की उम्मीद की जा सकती है। आखिर दिल्ली के लोगों ने जिन उम्मीदों से
आम आदमी पार्टी को जनादेश दिया, उन्हें पूरी करने का दारोमदार किस पर होगा? वैसे भी एक निर्वाचित सरकार
को कठपुतली बना देना लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं कहा जा सकता।
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