यह संसदीय प्रणाली का एक सामान्य तकाजा है कि अध्यादेश का तरीका तभी चुना चाहिए जबकोई आपातकालीन मामला हो। जबकि ‘शत्रु संपत्ति’ का मसला दशकों से चला आ रहा है। यों संबंधित अध्यादेश पर पिछले हफ्ते राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने हस्ताक्षर तो कर दिए, मगर खबर है कि इस मामले में पांचवीं बार अध्यादेश का सहारा लेने पर उन्होंने नाराजगी जताई है। यह केंद्र सरकार की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान है। संसद के अपने पहले ही संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भरोसा दिलाया था कि उनकी सरकार संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा का खयाल रखेगी। लेकिन उन्होंने शुरुआत ही अध्यादेश से की। पहला अध्यादेश इसलिए आया ताकि वे अपना मनमाफिक प्रधान सचिव चुन सकें। फिर, पोल्लावरम परियोजना के डूब-क्षेत्र का दायरा बढ़ाने के लिए। जिस भूमि अधिग्रहण कानून को भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए समर्थन दिया था, उसे बदलने के लिए भी अध्यादेश लाया गया। एक नहीं, तीन बार। आखिरकार किसान संगठनों के विरोध-प्रदर्शनों के आगे केंद्र सरकार को झुकना पड़ा और वह अध्यादेश फिर से जारी नहीं हुआ। शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 में संशोधन के लिए अध्यादेश पांचवीं बार जारी हुआ है। पहली बार इस साल जनवरी के पहले सप्ताह में, दूसरी बार अप्रैल के पहले सप्ताह में, तीसरी बार मई में और चौथी बार अगस्त में।
यह पहला मौका नहीं है, जब अध्यादेश का रास्ता चुनने पर राष्ट्रपति ने नाखुशी जताई है। जनवरी 2015 में भी, टेलीकॉन्फ्रेंस के जरिए केंद्रीय विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों तथा छात्रों को संबोधित करते हुए, उन्होंने कहा था कि अध्यादेश तभी लाया जाना चाहिए जब बहुत आकस्मिक स्थिति हो। उन्होंने यह कहने की जरूरत शायद इसलिए महसूस की होगी, क्योंकि मोदी सरकार के पहले आठ महीनों में वे नौ अध्यादेशों पर हस्ताक्षर कर चुके थे। शत्रु संपत्ति अधिनियम में संशोधन के लिए जो विधेयक संसद में लंबित है उसमें प्रावधान है कि जो लोग बंटवारे के समय या 1962, 1965 और 1971 के युद्ध के बाद पाकिस्तान या चीन चले गए और वहां की नागरिकता ले ली, उन्हें ‘शत्रु नागरिक’ और उनकी संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति’ माना जाए और सरकार को यह अधिकार हो कि वह ऐसी संपत्तियों के लिए संरक्षक नियुक्त करे। जो संपत्तियां लावारिस हों, उनकी बाबत तो यह प्रावधान समझ में आता है, पर ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि किसी परिवार का कोई बंटवारे के समय पाकिस्तान चला गया, मगर परिवार के दूसरे सदस्य यहीं रह गए। ‘शत्रु संपत्ति’ को लेकर दशकों से जब-तब चले विवाद में उन्होंने बार-बार यह सवाल उठाया है कि आखिर उन्हें किस बात की सजा दी जा रही है!
आजादी मिलने पर भारत के राष्ट्रीय नेताओं के आश्वासन पर उन्होंने यहां खुशी-खुशी रहना मंजूर किया, अपने कुछ लोगों के बिछोह के बावजूद। क्या यह उनका गुनाह था? गौरतलब है कि महमूदाबाद के तत्कालीन राजा अहमद खान भी 1957 में पाकिस्तान पलायन कर गए थे। शत्रु संपत्ति अधिनियम के तहत उनकी भी जायदाद भारत सरकार ने अपने कब्जे में ले ली थी। खान के बेटे ने बत्तीस साल कानूनी लड़ाई लड़ी और आखिरकार 2005 में उनके हक में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि किसी भारतीय नागरिक को उसकी विरासत से वंचित नहीं किया जा सकता। बहरहाल, ऐसे विवादास्पद मामले में जब सर्वोच्च अदालत के एक फैसले की नजीर हो, और कानून का स्वरूप तय करने की प्रक्रिया संसद में लंबित हो, अध्यादेश लाने का क्या औचित्य था?
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