नोटबंदी
के पीछे प्रधानमंत्री के मुताबिक सबसे खास मकसद काले धन से निजात पाना था। हालांकि
काले धन का ज्यादातर हिस्सा जमीन-जायदाद और सोने-चांदी के रूप में होता है। काले
धन से निपटने की सरकार की मुहिम किसी तार्किक मुकाम तक अभी पहुंची हो या नहीं, यह साफ दिख रहा है कि पांच सौ और हजार के नोटों के विमुद्रीकरण से पैदा
हालात को वह अर्थव्यवस्था को नगदी-रहित करने की तरफ ले जाना चाहती है। पिछले दिनों
प्रधानमंत्री ने ह्यमन की बातह्ण के अपने संबोधन में कहा भी कि उनका सपना है कि
भारत कैशलेस सोसायटी बने। इस दिशा में सरकार भी जी-जान से जुट गई है और रिजर्व
बैंक भी। यह विडंबना ही है कि जिस वक्त लोग बैंकों से अपना पैसा निकालने के लिए
जूझ रहे हैं, सरकार की चिंता नगदी उपलब्ध कराने की
उतनी नहीं दिखती, जितनी कैशलेस सुविधाओं के विस्तार की।
लिहाजा, कैशलेस भुगतान के लिए प्रोत्साहन के
नए-नए कदम घोषित किए जा रहे हैं। गुरुवार को सरकार ने ऐसी कई घोषणाएं कीं। डिजिटल
तरीके से खरीद पर पेट्रोल-डीजल में 0.75
फीसद, मासिक और सीजनल रेल टिकट में आधा फीसद,
खान-पान, विश्राम गृह और रिटायरिंग रूम के लिए पांच फीसद, नेशनल हाइवे के सभी टोल पर दस फीसद,
सरकारी
बीमा कंपनियों के उपभोक्ताओं को आॅनलाइन पॉलिसी खरीदने और प्रीमियम भरने पर दस
फीसद तथा दो हजार रुपए तक के डेबिट और क्रेडिट कार्ड से लेन-देन पर सेवा कर से छूट
मिलेगी।
इसके
अलावा, डिजिटल लेन-देन को बढ़ावा देने के लिए
दस हजार की आबादी वाले एक लाख गांवों में प्वाइंट आॅफ सेल (पीओएस) मशीनें मुफ्त दी
जाएंगी, जो कि डेबिट या क्रेडिट कार्ड स्वाइप
करने के लिए होती हैं। सरकारी बैंकों की तरफ से पीओएस और माइक्रो एटीएम का किराया
सौ रुपए से ज्यादा नहीं होगा। किसानों को सरकार रुपे कार्ड भी देगी, जिन्हें वे पीओएस, एटीएम और माइक्रो एटीएम के जरिए
इस्तेमाल कर पाएंगे। ये ग्यारह सूत्री कार्यक्रम,
जिनकी
घोषणा वित्तमंत्री अरुण जेटली ने गुरुवार को की,
पहली
जनवरी से लागू किए जाएंगे। साफ है कि विमुद्रीकृत किए गए नोटों को जमा करने की
अवधि बीतते ही सरकार की योजना लेन-देन के डिजिटलीकरण को एक बड़े अभियान का रूप देने
की है। बेशक हर सरकार को अपनी प्राथमिकताएं तय करने का हक है। पर यह मुहिम जिस तरह
से चलाई जा रही है उसमें ऐसा साफ दिखता है कि जो अपढ़ या कम पढ़े-लिखे हैं, ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं, जो इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं जानते, जो स्मार्टफोन नहीं रखते, उन्हें घाटा उठाना पड़ेगा।
कोई
निजी कंपनी भुगतान के तरीके को लेकर एक खास तरह के ग्राहकों को तवज्जो दे, तो इसे उसका व्यावसायिक पहलू कह कर नजरअंदाज किया जा सकता है। मगर सरकारी
बीमा कंपनी की पॉलिसी लेने पर एक ग्राहक से ज्यादा रकम लेना और दूसरे से कम, किसी चीज की खरीद में एक ग्राहक से सेवा कर वसूलना और दूसरे को इससे छूट
देना, कहां तक जायज है, जबकि हमारा संविधान कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है? अच्छा होगा कि प्रोत्साहन का स्वरूप जन-जागरूकता का हो, न कि भेदभाव का। फिर, डिजिटल लेन-देन के प्रोत्साहनकारी
कदमों की आड़ में सरकार नकदी-संकट से अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। उम्मीद थी कि
दिसंबर के पहले सप्ताह में हालत सुधरी हुई होगी,
जब लोग
वेतन और पेंशन का पैसा निकालने जाएंगे। लेकिन नोटबंदी के महीने भर बाद भी
नकदी-संकट ज्यों का त्यों है, जिसका असर लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी
और तमाम रोजगार-धंधों से लेकर पूरी अर्थव्यवस्था पर दिख रहा है।
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