
यों असम में विभिन्न अलगाववादी गुटों की ओर से हिंसा की घटनाएं नई नहीं हैं। लेकिन गणतंत्र दिवस के दिन इस तरह की घटनाओं से यह भी पता चलता है कि राज्य में सुरक्षा इंतजामों की हकीकत क्या है। परेश बरुआ की अगुआई वाला उल्फा संप्रभु असम की मांग के साथ सक्रिय है। पूर्वोत्तर के कई उग्रवादी संगठनों के साथ-साथ उल्फा के इस धड़े ने पिछले कई सालों की तरह इस बार भी गणतंत्र दिवस के बहिष्कार की घोषणा की थी और आम लोगों से किसी भी सामूहिक और राष्ट्रीय कार्यक्रम में हिस्सा न लेने को कहा था। जाहिर है, इस घोषणा के बाद हिंसा की आशंका पहले से ही थी। ऐसी स्थिति में सुरक्षा इंतजामों और चौकसी में कोई कमी नहीं बरती जानी चाहिए थी। लेकिन बम धमाकों के जरिए आतंक फैलाने की ताजा घटनाओं से यही लगता है कि सरकार ने इन संगठनों की धमकी को गंभीरता से नहीं लिया। यही वजह है कि परेश बरुआ ने कहा कि हम अपने मकसद में सफल हुए हैं और हमने जो चेतावनी दी थी, उसके अनुरूप ही काम किया।
पिछले कुछ समय से ऐसा लग रहा था कि इन संगठनों की गतिविधियां धीमी पड़ रही हैं। लेकिन हाल में कुछ आतंकी घटनाओं से एक बार फिर जाहिर हुआ है कि पूर्वोंत्तर में अलगाववादी संगठनों की तरफ से बेफिक्री महंगी साबित हो सकती है। इसी रविवार को असम-अरुणाचल सीमा पर सुरक्षाकर्मियों के एक काफिले पर उग्रवादियों ने घात लगा कर हमला किया था, जिसमें दो जवानों की जान चली गई। इसके पहले, बीते साल नवंबर में भी ऐसे एक हमले में तीन जवानों की जान चली गई। पुलिस ने इन हमलों के पीछे उल्फा के वार्ता विरोधी गुट और खापलांग के नेतृत्व वाले एनएससीएनका हाथ बताया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की एक वजह यह भी बताई थी कि इससे आतंकवाद पर काबू पाने में बड़ी मदद मिलेगी। हाल ही में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी दावा किया था कि नोटबंदी के चलते आतंकवादियों की ताकत कम हुई है और उनकी परेशानी बढ़ी है। लेकिन पूर्वोत्तर के अलावा जम्मू-कश्मीर में भी जिस तरह आतंकी घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है उससे पता चलता है कि आतंकवाद पर काबू पाने के दावों की हकीकत क्या है!
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