यह अच्छी बात है कि देश में चुनाव सुधार की दिशा में सोचने का रुझान बढ़ रहा है। यही नहीं, देश की दो अहम संवैधानिक संस्थाओं ने एक ही दिन दो अलग-अलग पहल कीं, जो स्वागत-योग्य हैं। गुरुवार को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव सुधार के एक बहुत अहम मसले पर विचार करने के लिए रजामंदी दे दी। गंभीर आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए या नहीं, और चुने गए प्रतिनिधि को कब यानी किस सूरत में अयोग्य घोषित किया जा सकता है, आदि सवालों पर विचार करने के लिए न्यायालय पांच जजों के संविधान पीठ का गठन करेगा। दूसरी ओर, निर्वाचन आयोग ने सर्वोच्च अदालत से कहा है कि प्रत्याशियों के लिए अपने आय के स्रोत का खुलासा करना भी अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। यह पहल भी काफी महत्त्वपूर्ण है। आयोग ने यह भी सुझाया है कि उम्मीदवार खुद के अलावा अपने परिवार के अन्य सदस्यों के आय के स्रोत का भी खुलासा करें। चुनाव में पारदर्शिता के तकाजे से आयोग के सुझाव की अहमियत जाहिर है। मौजूदा कानून के तहत यह प्रावधान तो है कि प्रत्याशी नामांकनपत्र भरते समय अपना, अपनी पत्नी (या पति) और आश्रितों की संपत्तियों तथा देनदारियों का ब्योरा दें, मगर उन्हें आय के स्रोत का खुलासा नहीं करना पड़ता है।
अगर आय का स्रोत पता न हो, तो जुटाई गई संपत्ति की पारदर्शिता के बारे में अनुमान लगाना कठिन होता है। फिर, कई राजनीतिक अपने कारोबार परिवार के अन्य सदस्यों के नाम से चलाते हैं। इसलिए आयोग ने पूरे परिवार की आय व संपत्ति का ब्योरा देने के साथ ही उन सबकी आय के स्रोत बताने को भी कानूनन जरूरी बनाने का सुझाव दिया है, तो यह बिल्कुल वाजिब है। अगर यह सुझाव मान लिया जाए तो पार्टियों पर उम्मीदवार चुनते समय ईमानदारी को प्रमुखता देने का दबाव बढ़ेगा। ऐसा नियम बने और लागू हो तो वह भी आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को चुनावी मैदान से बाहर करने में मददगार होगा। सर्वोच्च अदालत ने दागियों को विधायिका से बाहर रखने के तकाजे से जो पहल की है उसका लाभ पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में तो नहीं मिल पाएगा, पर उम्मीद की जा सकती है कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले जरूर कुछ ऐसी वैधानिक व्यवस्था बन पाएगी जिससे आपराधिक तत्त्व उम्मीदवार न हो सकें। एक समय था जब ऐसे किसी नियम-कानून की जरूरत महसूस नहीं की जाती थी, क्योंकि तब देश-सेवा और समाज-सेवा की भावना वाले लोग ही राजनीति में आते थे। पर अब हालत यह है कि हर चुनाव के साथ विधायिका में ऐसे लोगों की तादाद और बढ़ी हुई दिखती है जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हों। हमारे लोकतंत्र के लिए इससे अधिक शोचनीय बात और क्या हो सकती है!
यों तमाम राजनीतिक दल सैद्धांतिक तौर पर इस पर सहमति जताते रहे हैं कि विधायिका में आपराधिक तत्त्वों की घुसपैठ रोकने के उपाय जरूर किए जाने चाहिए, पर जब टिकट देने का समय आता है तो उम्मीदवार के किसी भी तरह जीत सकने, भीड़ व पैसा जुटाने की क्षमता ही उनके लिए मायने रखती है। जब संगीन मामलों के आरोपियों को उम्मीदवार बनने से रोकने का कानून बनाने की बात आती है, तो पार्टियों का तर्क होता है कि आंदोलनों के दौरान राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर अक्सर झूठे मुकदमे थोप दिए जाते हैं; उनके आधार पर किसी को चुनावी प्रक्रिया से बाहर करना घोर अलोकतांत्रिक, नागरिक अधिकारों का हनन व अन्यायपूर्ण होगा। इस दलील को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। पर यह भी सही है कि मौजूदा जनप्रतिनिधित्व कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो दागियों को उम्मीदवार बनने से रोक सके। फिर, इस पर भी नए सिरे से सोचने की जरूरत है कि विधायिका के किसी सदस्य को दोषी पाए जाने पर कब अयोग्य ठहराया जाए- निचली अदालत से सजा सुनाए जाने पर, या हाइकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट द्वारा निचली अदालत के फैसले को सही ठहराए जाने पर। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रस्तावित संविधान पीठ ऐसे सवालों के निराकरण में उपयोगी साबित होगा।
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