Where's the Irreverent Indian

The Indian Express                                                                        Jan 1st' 2015    

     

धर्म पर व्यंग्यात्मक प्रहार करना, भारतीय संस्कृति का ही एक स्वरूप रहा है जिसके अन्तर्गत सामान्य वर्ग एवं सनातन धर्म के मध्य सम्बन्ध जीवन्त बना हुआ है क्योंकि यह प्रहार भारत के किसी भी सनातन धर्म की कमियों एवं अनियमितताओं के ऊपर किया जाता रहा ताकि उसे उजागर करके सही किया जा सके। जैसा कि आज हिन्दी फिल्म ‘पीके’ ने पहले आयी फिल्म ‘ओ एम जी’ का अनुसरण करते हुए किया।
इसके उदाहरण भारतीय इतिहास में भी दिखाई पड़ते हैं, जब विभिन्न शासकों द्वारा विषमता को समाप्त करने हेतु प्रयास किये गये। सातवीं शताब्दी में पल्लव नरेश महेन्द्रविक्रमवर्मन (पल्लव वंश के महत्त्वपूर्ण शासक) ने अपने प्रसिद्ध नाट्यशास्त्र ‘‘मत्तविलास प्रहसन’’ में बौद्ध धर्म के उपदेशों के अनुरूप उसका अनुसरण न करने वाले बौद्ध भिक्षुओं पर व्यंग्य स्वरूप लिखा। इस नाटक का अभिनय करने पर कभी जनता द्वारा कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया करने का उदाहरण नहीं मिला। अपितु लोग जागरूक ही हुए। इसी क्रम में दूसरी सदी ईसापूर्व में जातक ने ‘‘खण्डाहला जातक’’ में रिश्वतखोर बौद्ध भिक्षु के बारे में कहा। इसी प्रकार मुगल काल में इतिहासकार मुज़फ्फर आलम बताते हैं कि धार्मिक समस्याओं में शासक महत्त्वपूर्ण आदेश देते थे।

भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है पर हिंसा द्वारा अभिव्यक्ति की नहीं। अन्यथा परिणाम पेशावर के स्कूल में हुई घटना हो या मात्र लाठी का प्रयोग, कुछ भी हो सकता है।

Comments