साख का सवाल...

देश के सबसे बड़े उद्योग समूह टाटा संस के चेयरमैन पद से साइरस मिस्त्री को अचानक हटाने का फैसला हैरान करने वाला है। टाटा समूह ने इस फैसले की वजह नहीं जाहिर की है, पर कयास लगाए जा रहे हैं कि कुछ समय से कंपनियों का कारोबार शिथिल पड़ रहा था, कर्जे बढ़ रहे थे और साइरस मिस्त्री ने बीमार उपक्रमों को बेचने का फैसला कर लिया था। बताया जा रहा है कि इस सब के चलते समूह के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा और साइरस मिस्त्री के बीच मतभेद उभर आए थे। अब नए चेयरमैन की तलाश शुरू हो गई है और अगले चार महीनों के लिए रतन टाटा अंतरिम चेयरमैन का कार्यभार संभालेंगे। रतन टाटा ने ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में साइरस मिस्त्री को चुना था।
अब मिस्त्री ने बोर्ड के फैसले के खिलाफ अदालत का दरवाजा खटखटाया है। टाटा संस भी इस मामले में वकीलों से विचार-विमर्श कर रहा है। रतन टाटा ने जिम्मेदारी संभालने के बाद प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इसकी सूचना दी। हालांकि यह समझ से परे है कि टाटा के बोर्ड सदस्यों ने इस नाटकीय फैसले के पीछे की वजह क्यों छिपा रखी है। इससे निवेशकों का भरोसा कमजोर होगा। अब तक टाटा संस में उत्तराधिकार को लेकर इस तरह टकराव कभी नहीं देखा गया। अगर सचमुच साइरस मिस्त्री का कामकाज अच्छा न होने की वजह से बोर्ड सदस्यों ने यह फैसला किया है, तो इसे छिपाने की क्या तुक?
किसी भी कारोबार में उतार-चढ़ाव का दौर चलता रहता है। रतन टाटा इक्कीस सालों तक समूह के चेयरमैन रहे और कंपनी के कारोबार में करीब सत्तावन गुना बढ़ोतरी हुई। उन्होंने कई बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण किया, कई कंपनियों का विस्तार किया, नए कारोबार शुरू किए। निस्संदेह उनका कार्यकाल सबसे बेहतर कहा जा सकता है। मगर साइरस मिस्त्री के करीब चार साल के कार्यकाल को भी बहुत निराशाजनक नहीं कहा जा सकता। शायद समूह को जिस रफ्तार से बढ़ोतरी की उम्मीद रही होगी, वह रफ्तार वे नहीं पकड़ पाए। कहा जा रहा है कि वे सिर्फ लाभकारी उद्यमों पर ध्यान दे रहे थे; कमजोर उद्यमों को सुधारने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी।

यही वजह है कि यूरोप में टाटा के कारोबार में उतार शुरू हो गया और मिस्त्री को वहां स्टील कंपनी को बेचने का फैसला करना पड़ा। यह बात शायद रतन टाटा को सबसे नागवार गुजरी। फिलहाल टाटा संस में सबसे अधिक शेयर रतन टाटा के हैं- करीब छियासठ फीसद। इसके अलावा समूह के बोर्ड में उनकी निर्णायक भूमिका है। साइरस मिस्त्री को अपना उत्तराधिकारी चुनने में उन्होंने काफी वक्त लगाया था। तीन साल तक वे किसी योग्य व्यक्ति की तलाश करते रहे, फिर साइरस को चुना तो एक साल तक अपने अधीन रख कर उनकी कार्यप्रणालीको जांचा-परखा था। जाहिर है, अब रतन टाटा की उम्मीदों पर मिस्त्री का खरे न उतर पाना ही इस फैसले की वजह है। रतन टाटा ने शेयरधारकों का विश्वास लौटाने, कंपनियों की स्थिति सुधारने और साख मजबूत करने की घोषणा के साथ अंतरिम चेयरमैन की जिम्मेदारी संभाल तो ली है, पर अगर मामला देर तक कानूनी दांव-पेच में उलझा रहा तो यह सब कर पाना आसान नहीं होगा। मिस्त्री के जाने के बाद बड़े पदों पर उलटफेर का दौर चलेगा। ऐसे में कंपनी की साख कैसे बची रहे, फिलहाल रतन टाटा को इस चुनौती से पार पाना होगा

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