जंग के बाद

दिल्ली के उपराज्यपाल के पद से नजीब जंग का इस्तीफा अप्रत्याशित ही कहा जाएगा। उनके कार्यकाल पूरा होने में अभी अठारह महीनों से ज्यादा का वक्त बाकी था। जंग ने खुद इस्तीफे का कोई कारण नहीं बताया है, बस इतना कहा है कि वे फिर से अकादमिक दुनिया में लौट जाएंगे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी उनके इस्तीफे पर हैरानी जताई है। उपराज्यपाल के तौर पर जंग के कार्यकाल को अनेक विवादों के लिए याद किया जाएगा। ये विवाद मुख्य रूप से उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच अधिकारों को लेकर थे। केजरीवाल बराबर यह आरोप लगाते रहे कि जंग उन्हें काम नहीं करने दे रहे। अलबत्ता अब जंग की विदाई के समय आम आदमी पार्टी ने एक बहुपठित और नेक व्यवहार वाले शख्स के तौर पर उनका जिक्र किया है और विवादों को खट्टा-मीठा अनुभव कह कर उन पर परदा डालने की कोशिश की है। कह सकते हैं कि इस तरह की टिप्पणी सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार का एक नमूना है। लेकिन सच यह भी है कि केजरीवाल और उनके साथी जानते हैं कि विवाद जंग के अपने व्यवहार की देन नहीं थे, बल्कि अधिकारों को लेकर गृह मंत्रालय और दिल्ली सरकार के बीच रस्साकशी के परिणाम थे। अगर शीला दीक्षित सरकार के समय वैसी खींचतान नहीं रहती थी तो इसका प्रमुख कारण यही था कि उनके अधिकांश कार्यकाल के समय केंद्र में भी उन्हीं की पार्टी सत्तासीन थी। लेकिन दिल्ली की कमान आम आदमी पार्टी के हाथ में आने के बाद यह समीकरण बदल गया।
वर्ष 1973 बैच के आइएएस अफसर और जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके नजीब जंग ने तीन सरकारों के साथ काम किया। पहले शीला दीक्षित सरकार के साथ, फिर कांग्रेस के समर्थन के सहारे बनी और उनचास दिन चली केजरीवाल सरकार के साथ, और फरवरी 2015 में फिर से और इस बार प्रचंड बहुमत से बनी केजरीवाल सरकार के साथ। वर्ष 2014 में दिल्ली में राष्ट्रपति शासन के दौरान भी वही उपराज्यपाल रहे। यह दिलचस्प है कि यूपीए सरकार के समय नियुक्त किए गए सभी राज्यपालों की मोदी सरकार ने विदाई कर दी, मगर नजीब जंग को बनाए रखा। यह भी कम विचित्र नहीं है कि जिस भाजपा ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग शुरू की थी, और कई चुनावों में इसे प्रमुख मुद््दा बनाया था, वह इन विवादों के दौरान उपराज्यपाल के हर निर्णय और हर हस्तक्षेप को सही बताती रही।
केजरीवाल सरकार की शिकायत यह थी कि जंग उन्हें काम नहीं करने दे रहे, और इस सिलसिले में वे अधिकारियों की नियुक्ति में अड़ंगे लगाने और फाइलें लौटाने से लेकर विधानसभा के प्रस्तावों को मंजूरी न देने के हवाले देते रहे। इस खींचतान में जंग को केंद्र का साथ तो मिलना ही था, दिल्ली हाईकोर्ट ने भी अगस्त में उन्हीं की तरफदारी की, यह कह कर कि उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासनिक प्रमुख हैं। लेकिन हाल में सर्वोच्च अदालत ने थोड़ा अलग रुख अपनाते हुए कहा है कि दिल्ली भले केंद्रशासित हो, पर निर्वाचित सरकार के कुछ अधिकार तो होने चाहिए, जिससे वह काम कर सके। इस विषय से संबंधित मामला अभी सर्वोच्च अदालत में लंबित है और उम्मीद की जानी कि जब अंतिम फैसला आएगा, तो दिल्ली में मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर छाया धुंधलका पूरी तरह दूर नहीं, तो कम जरूर होगा।

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