हादसे की पटरी

पिछले तीन महीने के भीतर तीन बड़े रेल हादसों में रेल महकमे की लापरवाही के चलते करीब तीन सौ लोगों की जान चली गई। ताजा घटना में आंध्र प्रदेश के विजयनगरम जिले में रविवार की रात जगदलपुर-भुवनेश्वर हीराखंड एक्सप्रेस पटरी से उतर गई, जिसमें अब तक चालीस लोगों की मौत और दो सौ से ज्यादा के घायल होने की खबरें आ चुकी हैं। अब एक रिवायत की तरह सरकार की ओर से हादसे में हताहतों के लिए मुआवजे और फिर घटना की जांच की घोषणा हो जाएगी। लेकिन क्या इस तरह की तात्कालिक जिम्मेदारियों से आगे भी रेल महकमा कुछ कर पा रहा है, ताकि रेलगाड़ियों में सफर करने वाले लोग निश्चिंत हो सकें कि गंतव्य तक सुरक्षित पहुंच जाएंगे? सवाल है कि जब कानपुर के पास दो लगातार दुर्घटनाओं के बाद सरकार की खूब किरकिरी हुई, उसके बाद आश्वासनों से इतर क्या किया गया? हादसों के पीछे माओवादियों या आइएसआइ की ओर अंगुली उठाते हुए क्या यह याद रखने की जरूरत समझी जाती है कि किसी भी हाल में सुरक्षा की जिम्मेदारी रेलवे की ही है?
हैरानी की बात है कि देश में सामान्य रेलगाड़ियों तक की सुरक्षित आवाजाही के लिए उपयुक्त पटरियां नहीं हैं, लेकिन कुछ-कुछ दिन के बाद ट्रेनों की गति बढ़ाने से लेकर बुलेट ट्रेन चलाए जाने के इरादे जताने में रेलवे को कोई संकोच नहीं होता। जबकि हकीकत यह है कि रेलगाड़ियों से सफर न केवल असुरक्षित होता जा रहा है, बल्कि किसी न किसी बहाने ट्रेनों की भयानक लेटलतीफी के चलते समय पर गंतव्य तक पहुंच पाना एक विरल घटना हो गया है। रेल महकमे में केवल सुरक्षा से संबंधित एक लाख बयालीस हजार से ज्यादा पद खाली हैं। बचत के लिए रेलवे में नौकरियां या पद कम करने की होड़ का खमियाजा यात्री किस तरह भुगत रहे हैं, यह इसी तथ्य से जाहिर है। दूसरी ओर, ट्रेन सफर को सुरक्षित और सुविधाजनक बनाने के नाम पर जिस तरह प्रीमियम या फ्लेक्सी जैसे कई अनाप-शनाप मदों में यात्रियों से पैसे की वसूली या किरायों में बढ़ोतरी की जा रही है, क्या उसी पैमाने पर ये आश्वासन पूरे किए जा रहे हैं?
जब से सुरेश प्रभु रेलमंत्री बने हैं, उनके बारे में इस बात का खूब प्रचार हुआ है कि चलती ट्रेन में भी अगर कोई व्यक्ति गाड़ी से संबंधित किसी समस्या का ट्विटर पर उल्लेख कर देता है तो वे तत्काल उस पर जरूरी कार्रवाई करवाते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि ट्रेनों में सफर पहले से कहीं अधिक असुविधाजनक और जोखिम-भरा बनता जा रहा है। आखिर रेल महकमा सुरक्षा और सेवा, दोनों मोर्चों पर लापरवाह क्यों दिख रहा है? जिन महकमों की सेवा में सुधार के नाम पर उनके निजीकरण की वकालत की जाती है, उसी स्तर की सेवा देने में सरकारी तंत्र नाकाम क्यों होता है? काकोदकर समिति की सिफारिशों पर अमल करने से सरकार को कौन रोक रहा है? अंतरराष्ट्रीय स्तर की सेवा केवल हवाई दावों से नहीं, बल्कि प्रबंधन और प्रशासन के मोर्चे पर ईमानदारी और दृढ़ इच्छाशक्ति से ही संभव हो सकती है।

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