संदेश का मर्म

छब्बीस जनवरी और संसद के सत्रारंभ जैसे अवसरों पर राष्ट्रपति के संबोधनों को अमूमन एक परिपाटी की तरह देखा जाता है और उनमें औपचारिक दायरे से अलग किसी संदेश की उम्मीद प्राय: नहीं की जाती है। लेकिन इस बार गणतंत्र दिवस पर राष्ट्र के नाम राष्ट्रपति के संदेश में और बातों के साथ-साथ एक बहसतलब मुद्दा भी था। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भारत की शक्ति को जहां बहुलतावाद और विविधता में रेखांकित किया, और असहिष्णुता की प्रवृत्ति को भारत की संस्कृति व परंपरा के विरुद्ध बताया, वहीं विधायिका में धन तथा समय के होने वाले अपव्यय पर चिंता जताई और चुनाव सुधार की वकालत भी की। उन्होंने कहा कि आजादी बाद के शुरुआती दशकों के उस चलन की ओर लौटने का समय आ गया है जब लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होते थे। जाहिर है, साफ शब्दों में उन्होंने लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव साथ कराने का आग्रह रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले से ही इस बात की पैरवी करते आ रहे हैं कि केंद्र और राज्यों के चुनाव साथ-साथ हों। विधि मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति भी इसके पक्ष में अपनी राय दे चुकी है।
आखिर केंद्रीय और प्रांतीय, दोनों चुनावों को साथ-साथ कराने का मसला क्यों इतना अहम होता जा रहा है? दरअसल, थोड़े-थोड़े समय पर देश में कहीं न कहीं चुनाव होते रहने से एक ओर विकास-कार्य बाधित होता है और दूसरी ओर, समय तथा धन का अपव्यय भी। शायद ही कोई साल ऐसा रहता हो, जब कहीं विधानसभा के चुनाव न हों। कई बार कुछ राज्यों के एक साथ चुनाव भी रहते हैं। चुनावी आचार संहिता लागू हो जाने पर बहुत सारे मामलों में सरकारों के हाथ बंध जाते हैं। चुनाव में निष्पक्षता तथा समान अवसर सुनिश्चित करने और सरकारी पैसे का दलगत स्वार्थ के लिए इस्तेमाल रोकने के उद्देश्य से आचार संहिता के तहत तय की गई मर्यादाओं के औचित्य से इनकार नहीं किया जा सकता। मगर कुछ-कुछ महीनों के अंतराल पर या हर साल चुनाव होते रहें तो विकास-कार्यों के लिहाज से ये मर्यादाएं बोझ सरीखी हो जाती हैं। अगर लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों, तो जहां सरकारी खजाने की बचत होगी, वहीं राजनीतिक दलों को भी जल्दी-जल्दी चुनाव के लिए चंदा जुटाने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी। प्रशासन भी लोक शिकायतों के निवारण पर कहीं ज्यादा ध्यान दे सकेगा। लेकिन जैसा कि राष्ट्रपति ने भी कहा है, इस मामले में निर्वाचन आयोग को राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श करके आगे बढ़ना होगा। जाहिर है, इस पर राजनीतिक आम सहमति जरूरी है।
यह केवल राजनीतिक नैतिकता या उदारता का तकाजा नहीं है, वैधानिक तकाजा भी है। लोकसभा तथा विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराने के लिए संविधान के कई अनुच्छेदों में संशोधन करने होंगे, जिनसे संबंधित प्रस्तावों को संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से पारित कराना होगा। यह विपक्षी पार्टियों की रजामंदी के बगैर संभव नहीं हो सकता। यों इस मामले में निर्वाचन आयोग कुछ दिक्कतें भी गिना चुका है। मसलन, कितनी बड़ी संख्या में वोटिंग मशीनें खरीदनी होंगी और दूसरे इंतजाम भी काफी करने होंगे। सुरक्षा संबंधी कठिनाइयों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बंगाल का चुनाव छह चरणों में कराना पड़ा था और उत्तर प्रदेश का सात चरणों में कराना पड़ रहा है। मगर ये सब प्रबंध से जुड़ी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। अगर अपेक्षित संवैधानिक संशोधनों के लिए राजनीतिक आम सहमति बन जाए, तो इन दिक्कतों का हल भी निकल आएगा।  ------------साभार- जनसत्ता--------------

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